ढलती उम्र की मजबूरिया

साला घर की तरफ से वापिस शहर को आती ट्रेनों को देख बहुत कष्ट होता है.. दरअसल उसमें भी कोई मुझसा लड़का अपने सपने आँखों में गंठियाए शहर आ रहा होता है, या फिर कोई लड़की सारी बेड़ियाँ तोड़ कर शहर आ रही होती है, जो जानता है वो ये की कोई बाप अपने बच्चों को इस आसरे पे छोड़ शहर में नौकरी की तलाश में आता है कि, जब वहां से वापस आएंगे तो बढ़िया बढ़िया कपडे और मिठाई ले आएंगे, ये सबसे ज्यादा सालता है. कि कैसे कोई अपना खेत अपना गाँव अपना घर छोड़ कर रह लेता है ? लगभग 10 साल होने को आ रहे घर छोड़े लेकिन आज तक यह चीज़ दिमाग में कौंधती है तो शिराहने पर  कुछ सिसकियों के अलावा कुछ नहीं मिलता…

यार मुझे इस शहरीकरण से बहुत नफरत है, मतलब अगर अर्बनाइज़ेशन हो सकता है तो रूरलाइजेशन क्यों नहीं ? रोजगार या शिक्षा गाँव में क्यों नहीं मिल सकती, ये शहरों में बने कॉलेज क्या जाने की आँसू के कितने घूँट पीकर हम यहाँ आते हैं, मन अबोध बालक सा, रोने को होता है तो दिमाग के ही किसी कोने से एक मर्दाना आवाज़ आती है, शांत रहो,अब तुम बड़े हो गए हो, रोओ मत, कोई नौकरी की तलाश में बिन बरसाए  गेंहूँ तो कोई बीमार पत्नी या नन्हें घुटनों के बल रेंगते बच्चों को छोड़ कर चला आता है, क्यों ? क्योंकि गाँवों में रोज़गार नहीं है…

वैसे शहरों में आवारा भीड़ में गुम होना शायद फ़ैशन हो, मगर मुझे तो वही गाँव के एकांत में पुरा सुकूँ आता हैं. ट्रेनों में भूस्से की तरह लदे-फने लोग शहरों में आ जाते हैं, कुछ लड़के जिनके आँखों में कुछ कर गुजरने की आशाएं प्रतिबिंबित होती हैं, कुछ लडकियां, जो रूढ़िबद्धता स्टिरियोटाइप्स को तोड़ना चाहती हैं, कुछभी कर के उन्हें इस शहर का पूर्ण दोहन करते हुए सफल होना है, मगर सफल होने के पैमाने निश्चित कौन करेगा? आप एक तरफ़ एक शान-ओ-शौकत वाली नौकरी तो पा जाते हैं, पर गाँव से हाथ धो बैठते हैं, अपनी नींव से हट जाते हैं, भटक जाते हैं,गाँव मे दूध राबड़ी , दलिया खाने वाले लोग मैंगोशेक, कोल्ड काफी पीते हैं तो दुःख होता है. छांछ पीने वाले लोग, अमूल या सरस डेयरी के प्लास्टिकों में बंद पास्चुरिकृत छांछ पीते हैं तो दुःख होता है. दाल बाटी न मिलने पर दुःख होता है, एक गुच्ची अरमानी पेपे रेंगलेर जीन्स पहन कर चलते हुए लोग जब आपको घूरें तो दुःख होता है, इस गुलाबी नगर में अपनी खड़ी बोली में बतलाते हुए किसी को सुने और मुंह बिदकाये तो दुःख होता है, वो गूची अरमानी , नाइक एडिडास वाले लड़के, जब बिना एक्सक्यूज मी बोले धक्का देकर चले जाएं और आप चाह कर उनको कुछ कह  न पाएं तो दुःख होता है…

और दुःख होता है जब रोज के रोज उतने ही लोग ट्रेनों में लदे-फने शहर को आएं जितने कल आये थे, आप चाह कर भी उनको रोक नहीं सकते, क्योंकि आपके भी हाथ इसी रंग से रंगे हुए हैं! दुःख होता है, जब माँ फोन और करती है और कहती है बेटा जल्दी नौकरी लेकर घर आ जाओ, तब दुःख होता है जब पिताजी , चाचाजी की बातें सुनते सुनते आप कुछ बोल नहीं पाते, आपका गला रूंध जाता है, और दुःख होता है जब राखी पर बहनें राखी कुरियर से भेजती हैं, दुःख होता है जब होली दिवाली दशहरा गुप्प अँधेरे कमरे में सूखी रोटी  खाकर बिताना पड़े, जब जन्मदिन याद न रहे, या याद भी रहे तो होश न रहे कुछ करने का, आप दूजे नशे में धुत हो, आपको नौकरी चाहिए, ये सब होते हुए देखना, समझना, और कुछ कर न पाने पर दुःख होता है, सब सहते हुए आपके रो न पाने पर दुःख होता है, और साला इतना दुःख होता है कि सिर्फ दुःख ही दुःख नज़र आता है.. यार रोज़ के रोज़ उन ट्रेनों को गाँवों की तरफ से शहर वापस नहीं आना चाहिए.. उनको वापस आते देखते हुए दुःख होता है…

**बेरोजगारी**